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पिशाच प्रेमी या पागल (अन्तिम भाग )

SUBODHA
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देखते हैं कि बालकों को अमर्यादित भोजन करके उन्हें बीमार बनाने वाली माता बेटे के फोड़े को सड़ने देकर हड्डी गल जाने तक डॉक्टर के पास न ले जाने वाला पिता, भाई के अन्याय में सहायता करने वाला भाई, मित्र को पाप पंक में पड़ने से न रोकने वाला मित्र, बीमार को मनचाहा भोजन देने वाला अविवेकी परिचारक समझता है कि मैं प्रेमी हूँ, मैं दूसरे पक्ष के साथ प्रेम का व्यवहार कर रहा हूँ।

देखते हैं कि साँप को छोड़ देने वाले, चोर को सजा कराने का विरोध कराने वाले, अत्याचारी को क्षमा करने वाले, पाजी की हरकतें चुपचाप सह लेने वाले समझते हैं कि हमने बड़ी दया की है, पुण्य कमा रहे हैं, प्रेम का प्रदर्शन कर रहे हैं।

इन सब दृश्यों को जब हम देखेंगे तो अनुभव करेंगे कि ईश्वर का वेष बनाकर शैतान आ बैठा है, धर्म की आड़ में पाप बोल रहा है, गाय का चमड़ा ओढ़ कर भेड़िया विचरण कर रहा है। इन्द्रिय लिप्सा, व्यभिचार, पतन प्रोत्साहन, अन्याय वर्धन को यदि प्रेम कहा जायगा तो हम नहीं समझते तो पाप नाम की कौन सी चिड़िया इस दुनिया में शेष रहेगी।
प्रेम का अर्थ है त्याग और सेवा। सच्चा प्रेमी अपने सुखों की तनिक भी इच्छा नहीं करता वरन् जिस पर प्रेम करता है उसके सुख पर अपने को उत्सर्ग कर देता है। लेने का उसे ध्यान भी नहीं आता, देना ही एकमात्र उसका कर्तव्य हो जाता है। जिसके हृदय में प्रेम की ज्योति जलेगी वह गोरे चमड़े पर फिसल कर अपने चमारपन का परिचय न देगा और न व्यभिचार की कुदृष्टि रखकर अपनी आत्मा को पाप पंक में घसीटेगा। वह किसी स्त्री के रूप, रंग, चमक, दमक, हाव, भाव या स्वर कंठ पर मुग्ध नहीं होगा, वरन् किसी देवी में उज्ज्वल कर्तव्य का दर्शन करेगा तो उसके चरणों पर झुककर प्रणाम करेगा। स्त्रियों से प्रेम करने वाले के कमरे में अभिनेत्रियों के अधनंग चित्र नहीं होंगे वरन् सीता और सावित्री की प्रतिमायें विराजेंगीं। प्रेमी कमर लचकाकर गलियों में छैल चिकनियाँ बना हुआ न फिरेगा, वह माँ बहिनों को सती साध्वी बनाने के लिए उनमें धर्म प्रेरणा करेगा। उसकी जिह्वा पर आशिक-माशकों के गन्दे अफसाने न होंगे वरन् राम-भरत के प्रेम की चर्चा करता हुआ गदगद हो जायेगा। प्रेमी का दिल तो बेकाबू हो सकता है पर दिमाग मुट्ठी में रहेगा, वह दूसरों के सुख के लिए आत्मत्याग करने में अपने को बेकाबू करेगा, किन्तु किसी को पतन के मार्ग पर घसीटने का स्मरण आते ही उसकी आत्मा काँप जायगी। इस दिशा में उसका एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। अपने प्रेमपात्र को बदनामी, पतन, दुख, भ्रम और नरक में घसीटने वाला व्यक्ति किसी भी प्रकार प्रेमी नहीं कहा सकता, वह तो नरक का कीड़ा है जो अपनी विषय ज्वाला में जलाने के लिए दूसरे पक्ष को घसीटता है।

स्मरण रखिए प्रेम का लक्षण त्याग है। जब आप अपने सुख को दूसरों के ऊपर निछावर करते हैं तब आप प्रेमी हैं। जब आप अपने सुख के लिए दूसरे को पतन के मार्ग में खींचते हैं तब आप पिशाच हैं। जब आप दूसरों के सुधार के लिए स्वयं कष्ट सहते हैं, बुराइयाँ ओढ़ते हैं, तप करते हैं तब आप प्रेमी हैं। जब दूसरों के कुकर्म को यों ही अनियंत्रित गति से बढ़ने देते हैं, न तो उनको रोकते हैं, न विरोध करते हैं तब आप पागल बन जाते हैं। क्योंकि भविष्य की हानि-लाभ न सोचकर केवल आज पर ही ध्यान देने वाला पागल कहा जाता है। सन्निपात ग्रस्त को मिठाई खिलाकर उसकी बीमारी बढ़ा देने वाला पागल ही कहा जायगा। प्रेमी का धर्म है त्याग और सेवा। त्यागी और सेवक ही प्रेमी कहला सकता है। जो भोगेच्छा में जलता फिरता है वह पिशाच है और जो सुधार के लिए किसी को कष्ट देना नहीं चाहता एवं सेवा के लिए उद्यत नहीं होता वह पागल है।
प्रेमियों को अपना अन्तःकरण टटोलकर निर्णय करना चाहिए कि वे पिशाच हैं? प्रेमी हैं? या पागल हैं?

समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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