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“चिंता तू न गयी मेरे मन से”

SUBODHA
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मश्तिष्क में विचार उठना प्रकृति का नियम है,पर जब एक ही विचार हमेशा उठता रहे ,तो मनुष्य चिंतित हो जाता है | अपने साथी और आचार्य दीपक पाण्डेय जी के शब्दों में “चिंतन जरूरी है “,परन्तु साधु विश्व हित के लिए चिंता करता है और असाधु स्वार्थ सिद्ध करने के लिए चिंतित है | लौकिक जगत में कुछ न कुछ स्वार्थ तो सब में ही होता है,” स्वारथ लागि करहि सब प्रीती”| पर इतने स्वार्थी मत बन जाओ की दूसरे का अहित करने लगो |क्यूंकि नियति में प्रतिउत्तर देने की शक्ति है,चाणक्य तो एक माध्यम है ,घनानंद का विनाश तो पूर्वनिर्धारित है |
मुझे नहीं लगता कोई भी सरकार आने से भ्र्ष्टाचार पूरी तरह से ख़त्म हो सकता है ,जब तक इंसान कुछ अलग हट के न सोचे |
देश का इतिहास एक ओर व्यापम को समेटे हुए है,जहाँ पर लोग सरकारी नौकरी पाने के लिए लाखों रुपये दे रहे ,तो दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने “कौन बनेगा करोड़पति” खेलकर अनेकों बेरोजगार को नौकरी के अवसर दिए |
आज आवश्यकता है,स्वरोजगार के अवसर तैयार करने के,न कि सरकारी पदों के लालच में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने की |

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