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“अपनी सोच-अपने रास्ते”

SUBODHA
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बाल्यावस्था में शायद हर किसी को दुनियाँ बहुत अच्छी नज़र आती,एक अबोध बालक सबसे हंसकर,निष्कपट सा मिलता है | एक मज़दूर का बेटा,मिट्टी-बालू के ढेर से खेलता है ,तो एक इंजीनियर की बेटी,लैपटॉप से ,एक अनपढ़ की संतान,कीचड में सनकर मग्न रहती है ,तो एक संभ्रांत इंसान की संतान,कीचड से दूर रहना चाहती है |
सब में आत्मा तो एक ही है ,पर चेतना भिन्न है ,शायद इसीलिये एक बालक पेड़ की छाँव में खेलता है ,तो दूसरे अपने २-३ साथियों के साथ गंदी नाली में केकड़े खोजते हैं ,एक कुत्ते को भौंकना सिखाता है ,तो दूसरा गाय के बछड़े को पुचकारता है | इसी विभिन्नताओं का नाम है संसार |
कल मैंने एक दृश्य देखा,एक औरत जिसके पास लगभग २ वर्ष का बच्चा दिन में ११-१२ बजे के आसपास धूप में बैठकर भीख मांग रही,उसकी दूसरी तरफ एक छायादार छोटा पेड़ खड़ा,पर वह खुद भी धूप में मर रही और बच्चे को भी सता रही |
इसलिए यदि ऐसी सोच वाले लोग इस देश में है,तो विधाता भी कुछ नहीं कर सकता |
हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग हैं ,जिन्हे कोई भी सरकार बने ,कुछ फर्क ही नहीं पड़ता उन्होंने अपने को ऊपर उठाया और न जाने कितनो को सफल बना दिया और कुछ ऐसे भी हैं,जिनका कभी भी भला नहीं हो सकता |
सब कुछ अपनी-अपनी सोच पर निर्भर करता है |

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