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धर्मो रक्षति ,रक्षितः ;या धारयति इति धर्मः;आदि अनेक सूक्तियों से परिभाषित और आचार्य चाणक्य के एक बहुत गहन मंत्र –
आहार ,निद्रा, भय, मैथुनम च सामान एतानि पशुभिः नराणां ,
धर्मो हि तेषाम एको विशेषः,धर्मेण हीनाः पशुभिः समाना || इत्यादि पर विचार करने के बाद आज ऐसी अनुभूति हो रही है -मानव पशु से भी बदतर बनता जा रहा है | कुछ मूर्ख जो अपने तथाकथित सर्वश्रेष्ठ धर्म के प्रसार के लिए,अपनी काम की दुर्वासना से जो कुकृत्य कर रहे हैं,उससे अवश्य ही उनके कुल और धर्म का सदा के लिए लोप भी हो सकता है,क्यूंकि नारी के साथ अत्याचार,व्यभिचार और उससे उत्पन्न होने वाली संतान सर्वनाश का कारण ही होती है | कोई भी धर्म और समाज अधिक संतान पैदा करने से वर्चस्व स्थापित कदापि नहीं कर सकता,अधिक संताने आपस में ही मार -काट कर के सम्पूर्ण विनाश की ओर उन्मुख हो जाती हैं,ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे धर्म ग्रंथों और हमारे आसपास भी वर्तमान समय में भी दृष्टि गोचर होते रहते हैं | धर्म की स्थापना हेतु एक ही युग पुरुष पर्याप्त है और उसके प्रचार -प्रसार के लिए ब्रह्मचर्य,वैराग्य ,सद्भावना और सत्कर्म | स्वामी विवेकानंद और ए.पी .जे.अब्दुल कलाम जैसे व्यक्तित्व इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हो सकते हैं |
धर्म असत्य का सहारा लेकर पुष्पित -पल्ल्वित नहीं होता,धर्म सत्य रूपी सूर्य है जिसमे करोड़ो -करोड़ों असत्यों को एक पल में दग्ध करने की महान सामर्थ्य है|
बुजुर्गों से ऐसा सुना जाता है और इतिहास में भी ऐसा पाया गया,जब-जब इस वैदिक सनातन धर्म पर अत्याचार हुए तब -तब ईश्वरीय तेज ने इस धरती पर प्रकट होकर अपने कर्मो से एक नयी सभ्यता का प्रादुर्भाव किया,शंकराचार्य से लेकर तुलसी तक इसके अनेक उदाहरण हमारे इतिहास में दर्ज है |
अतः आज के समय की मांग है ,एकजुट होकर धरम विरोधी तत्वों का विरोध किया जाये और ईश्वरीय सत्ता के प्रति हर पल आत्म निवेदित होकर जीवन जिया जाये,ताकि हम किसी गलत संगति में न पड़ जाये |
गोविन्द ! द्वारिका वासिन ! कृष्ण ! गोपीजनप्रियः !
कौरवैः परिभूताम् माम् किम न जानासि केशव !!!
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