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“कानपुर की ज्योति”

SUBODHA
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एक नहीं,अनेक ज्योति जग के गहन तम में विलीन हो रही हैं |
शर्मशार मानवता,मिट रही सभ्यता,हर राह पर नारी कट रही हैं ||
पैसों के ढेर पर सोया हुआ मानव,दानव बन गया |
सती साध्वी को अपमानितकर,धुंधकारी हो गया ||
गोकर्ण जी महाराज तो,स्वर्गारूढ़ हो गए |
पैसे के मद में ,जग में सब रावण हो गए ||
रावण से भी बदतर हो शायद तुम,गृह लक्ष्मी को ही काट रहे हो |
अपनी पराक्रम रूपी नपुंसकता को ,एक अबला पर दिखा रहे हो ||
मर्द हो तो किसी शेर से टकराकर दिखलाओ |
मानव के रूप में वैश्यावृत्ति मत बढ़ाओ ||
लगा दो आग ,उन पैसों में जो तुम्हे जीने नहीं देते |
राख़ कर दो उन पैसों को,जो तुम्हे हत्यारा बना देते ||
तुम से श्रेष्ठ वह मज़दूर दमपत्ती है,जो एक साथ प्रतिदिन मज़दूरी करते हैं|
अपना पेट भरते और अपने बाल -बच्चों का भी पालन -पोषण करते हैं ||
यह संसार कोई तमाशा नहीं,भगवान का न्याय कक्ष है |
हर कर्मो का फल यहां ,मनुष्य के समक्ष है ||
कटती हुयी रूह की तड़पन,वह भटकती आत्मा तुम्हे नष्ट नाबूत कर देगी |
तुम्हारा पैसा,गाड़ी ,बंग्लॉ और तुमको भी मिट्टी में मिलाकर ही दम लेगी||
कलियुग का यह पियूष भी,विषधर से भी जहरीला है |
कामिनी,कंचन के पीछे,हर मानव आज विषैला है ||

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