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“मैं कैसे पर्व मनाऊँ ?”

SUBODHA
SUBODHA
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मच रहा करुण क्रंदन जग में,
रो रहा बचपन हर घर में ,
नैतिकता मिट रही जन मन में,
बाला चीख रही पथ में,
अश्रु भरे इन नयनों से,
मैं कैसे पकवान बनाऊं|
मैं कैसे पर्व मनाऊँ || मैं कैसे पर्व मनाऊँ ||
पुणे और यूक्रेन रो रहा,
मानवता का विध्वंश हो रहा,
मानव ही मानव का जीवन आज खा रहा,
हत्यारों के बीच बैठकर,
मैं कैसे नवरस गाऊँ||
मैं कैसे पर्व मनाऊँ || मैं कैसे पर्व मनाऊँ ||
खो गया जीव का अपनापन,
मर्यादा हो गयी छिन्न -भिन्न,
जग के मेले में एकाकी मैं,
किसको आज अपनाऊं||
मैं कैसे पर्व मनाऊँ || मैं कैसे पर्व मनाऊँ ||
न जाने कब नागपंचमी,
न जाने रक्षाबंधन,
जग में विचरण करते -करते,
कर्ण रन्ध्र सुनते क्रंदन|
त्राहि-त्राहि अरु पाहि-पाहि के कोलाहल में ,
शांतिवचन मैं कैसे गाऊँ ||
मैं कैसे पर्व मनाऊँ || मैं कैसे पर्व मनाऊँ ||
जब सारे बंधन तोड़ प्रिये,
आऊंगा तेरे द्वार प्रिये,
बाहें फैलाकर मिल जाना,
तब होगा अपना पर्व प्रिये||
प्रति स्वांस मैं पर्व मनाऊँ
मैं ऐसा जीवन चाहूँ||
अभी,मैं कैसे पर्व मनाऊँ |||

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