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लोग ऐसा कहते हैं ,जैसे -जैसे इंसान की उम्र बढ़ती है ,उसके कर्म कटते हैं और इंसान सत्य के करीब होने लगता है और अंतिम समय होते -होते, हर इंसान सत्य का अनुभव कर ही लेता है.उम्र के आख़िरी पड़ाव पर वह एनालाइज करता -उसने अपने विगत जीवन में क्या अच्छा किया और क्या बुरा,वह कहाँ सही था ,कहाँ गलत.पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है,तब इंसान पश्चाताप ही कर सकता है ,संशोधन कदापि नहीं.
मेरा यह मानना है,कोई भी इंसान ३० वर्ष के बाद ही सच में समझना शुरू करता होगा,यदि परस्थितियां विपरीत और विमुख न हो.और अक्ल दन्त भी २० वर्ष के उम्र के आसपास ही निकलता है.पुस्तक का ज्ञान केवल जिज्ञासा शांत करने के लिए हो सकता है,पर शेर की हक़ीक़त तभी समझ में आती,जब सामने खड़ा हो के गुर्रा रहा हो.तब शायद कोई भी इंसान एक पल के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ हो ही जाएगा.
पर हमारे बुजुर्ग ,जो अपने और अनगिनत दूसरे बुजुर्गों और साथियों के अनेक वर्षों का अनुभव साथ में लेकर जी रहे हैं,शायद वह विश्व के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं.न जाने कितने शेरों का, वो सामना कर चुके हैं.
उनका हर एक सुझाव पत्थर की लकीर जैसा,उनकी हर एक बात भविष्यवाणी जैसी होती है,जिनके बुजुर्ग प्रसन्न रहते हैं,उनकी आगामी पीढ़ी उन्नति और उत्थान के नए आयाम स्थापित करती है.
अतः बुजुर्ग का सेवा-सम्मान और आज्ञापालन,केवल परंपरा और हमारी संस्कृति ही नहीं,अपितु एक अति आवश्यक कर्तव्य है.
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