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आज इस देश में परिवारवाद का बहुत बोलवाला है,हो भी क्यों न. एक कहावत है -“बाढ़ै पूत पिता के धर्मा,खेती बाढ़ै निज के कर्मा”. पिता की विरासत पर पुत्र का अधिकार तो जन्म से ही सिद्ध हो जाता है. आप की पहचान आप के पुरखों के कार्यों से भी होती है, vice versa is also true , आप के पुरखों की पहचान भी आप के कार्यों से होती है,जिसे आनुवांशिकता कहते हैं.
बाबा जी एक दृष्टांत सुनाया करते थे, बचपन में. उन्ही के शब्दों में-
एक पंडित जी राजा के दरबार में महामंत्री थे,जब सेवानिबृत्ति की बारी आयी ,तो पंडित जी ने राजा से कहा ,हमारे बेटे को ही रख लीजिये इस रिक्त स्थान पर. राजा ने कहा ठीक है ,कल आप उसको दरबार में लाना.उसकी योग्यता का परीक्षण कर के रख लेंगे.
दूसरे दिन महामंत्री जी पुत्र के साथ राजदरवार में पहुंचे.राजा ने अपनी मुद्रिका को मुठ्ठी में रख कर महामंत्री के शहज़ादे साहब से पूछा-मेरी मुठ्ठी में क्या है?
ब्राह्मण कुमार ने सोच विचार कर उत्तर देना प्रारम्भ किया -कोई धातु है ?राजा ने कहा-सत्य.और स्पष्टीकरण दो , उत्तर -धातु के मध्य में छिद्र है,राजा -सत्य है और स्पष्ट करो.आख़िरी उत्तर ब्राह्मण बालक ने बिना सोच विचार कर दे दिया,बोला -“चक्की का पाट”.
राजा ने कहा- महामंत्री जी ,जब तक आप का बेटा,शाश्त्र के आधार पर बोलता गया,सही था.पर उसमे अभी आप जितना अनुभव नहीं है. इसी लिए चाणक्य नीति में कहा गया –
रूप यौवन सम्पन्ना,विशाल कुल सम्भवा.
विद्या हीनः न शोभन्ते ,निर्गन्धा इव किंशुका..
“लल्ला कुछ समझ में आया, कि नहीं”. चक्की का पाट ,मुठ्ठी में कैसे समाएगा.
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