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न जाने कितने जन्मों से मैं भटक रहा,
इस मृत्यु लोक के महासागर में.
इस जन्म में तुम,
मेरे लिए ईस्वर प्रदत्त विशेष उपहार हो..
अनगिनत पूर्व जन्मों की अनेक इच्छाओं की तपन लिए ,
जब इस धरा पर मैं आया.
उस तपन की शांति हेतु ,तुम्हारे स्नेह मेघों को
मैंने अमृत सुधा से परिपूर्ण पाया ..
उन मेघों की धीमी -धीमी फुहार,
मेरे तन- मन पर ऐसी पडी-
जैसे करुणावतार की करुणा वरस रही हो,
जैसे करुणासागर ही मेघों का रूप धारणकर,मुझे सराबोर कर रहा हो,
जैसे अम्बिका भवानी अपना आँचल पसार कर,मुझे त्रितापों की तपन से बचा रही हो,
जैसे उद्भवस्थितिसंहारकारिणी सीता, लव-कुश का लालन -पालन कर रही हो..
अज्ञानता से भरे इस कच्चे जीवन घट को –
आप ने अपने परिपक्व हाथों से सहेजा,
यत्र-तत्र -सर्वत्र जहाँ कहीं भी आप गए,घट को साथ ले गए.
“बालस्तावत्क्रीडासक्तः” के सिद्धांत को आप ने पलट दिया,
“त्वमेव माता ,पिता त्वमेव” को शैशवकाल में ही घट में भर दिया..
विज्ञान की परिभाषा,इतिहास की कहानी,भूगोल की माप,
जीव का जीवन ,वनस्पति का विकास ,गणित की गिनती ,
राजनीती के नियम व कटु सत्य ,संस्कृत की सभ्यता
सब कुछ समाहित थी आप में.
उन सब का सार निचोड़ कर ,इस घट में ऐसे डाला,
जैसे अग्निदेव से ज्ञान, वशिष्ठ के पास आया हो,
जैसे सूर्य का सिद्धांत , हनुमान के पास आया हो ,
जैसे वशिष्ठ ने ,राम को सिखाया हो,
जैसे वाल्मीकि ने ,लव-कुश को पढ़ाया हो,
जैसे सांदीपनि ने, कृष्ण को ६४ कलाओं में निपुण किया हो,
जैसे कृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान दिया हो ..
हनुमान चालीसा,रामचरितमानस की चौपाइयां,
गीता के श्लोक,दुर्गा सप्तशती के मंत्र ,सत्य नारायण की कथा ,
पंचांग के पांच बारीकियां ,चाणक्य-विदुर नीति के श्लोक,सामुद्रिक शाश्त्र ,
इंसान-शैतान की पहचान ;कब ,क्या ,किससे ,कैसे बोलना,
इन सब से मिटटी के कच्चे घट को भरकर, स्वर्णिम बना दिया..
आप ने हमेशा यही चाहा और अभी भी चाह है ,
ये अपना घड़ा ,अपने आसपास ही रहे,
पर नियति का लेख ,विधाता का विधान समझकर,
अपने से दूर जाने में भी ,आप से खुशी के ही आंसू निकले..
आज जब मैं यहाँ ,तुम वहॉँ,
तो मुझे याद आता,
वो आप का मंगल को भोले बाबा व हनुमान जी पर प्रसाद चढ़ाना ,
हमारा झट से दोनों बताशे उठा के खा लेना और आप का मुस्कुराना.
वो दादी का अलग से कटोरी में घी देना,( जितना आजकल होटल में दही दिया जाता है).
वो हमारी एक दिन स्कूल न जाने की जिद, और आप की हल्की पिटाई.
वो आप का मुझसे कर्मकांड -पूजापाठ,सूर्य अर्घ्य देने के लिए प्रेरित करना,
हमारा उत्तर-(“तुम्हे दो लोटा जल दिया करूंगा,प्यास अधिक लगती तुम्हे”) सुनकर तुम्हारा हंस देना..
बस अब और क्या कहूँ ,आंसू आ गए ,गला रुंध गया ,लेखनी थम गयी ,
मानो प्रकृति भी मौन हो गयी हो.
पर यदि “पुनरपि जननम्,पुनरपि मरणम्” के चक्र से मैं मुक्त न हो पाऊँ,
तो फिर अवश्य मिलना ,अवश्य मिलना ,अवश्य मिलना “बाबा -दादी” ही बनकर,
यही प्रभु से सतत याचना है.
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