- 240 Posts
- 617 Comments
आज से लगभग ७० वर्ष पूर्व
निराला जी ने उसे देखा-
इलाहाबाद के पथ पर,
वो तोड़ती पत्थर .
पर अपने विगत जीवन में
मैं जिस किसी गली से गुजरा ,
मैंने बहुतों को देखा ,
वो ढ़ोती मैला ,
खगालतीं कूड़े का ढेर ,
जीवन की अाजीविका को खोजती
कचरे के ढेर में .
साथ में २-४ बच्चे भी ,
कुछ बाल श्रमिक और कुछ दुधमुहें .
मैंने देखा -मई माह में मध्याह्न के समय ,
भोपाल के पथरीले प्रांगण के बीच ,
तमतमाती -चिलचिलाती धूप में ,
दो छोटे पोल से बांधकर ,
अपने पति के अंगोछे में-
अपने कुछ माह के बच्चे को
बीच -बीच में हिलाती,
और सड़क के निर्माण में कार्यरत
वो ढोती कंकण और गिट्टी.
मैंने देखा- मुंबई जैसे महानगर में ,
वो बांध देती अपनी शिशु कन्या का एक पैर,
एक पास के भव्य मंदिर के पोल में,
और वो बना रही बहुमंजिला इमारतें.
कन्या पोल के आसपास,
लगाती परिक्रमा.
जैसे वो कन्या भी पोल से,
किसी नरसिंह अवतार की प्रतीक्षा में.
मैंने देखा -वो कोल्हू का बैल बनकर ,
निकाल रही गन्ने का रस ,
और पिला रही ,
सभ्य समाज के ठेकेदारों को.
शायद यही हमारा विकास है ,
और यही सबसे बड़ी उपलब्धि.
कि हम अपने देश के मज़दूर और उसके परिवार को,
नहीं दे पा रहे दो जून बनी बनाई रोटी ,
और उसके बच्चों को अच्छा वातावरण और शिक्षा.
धिक्कार है ऐसे समाज को ,
और ऐसी तरक्की को.
और ऐसी व्यवस्था और सरकार को.
फिर भी हम-
“भारत देश महान”
का तोता पाठ कर रहें हैं.
Read Comments