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मैं भी पूरे मन से अपने गॉव के बाहर की दुनिया,पुल का काम देखने को बेताब हो रहा था,लेकिन बाबा जी मुझे अपने पास रखकर ही पढ़ाना चाहते थे,यह उनकी भावनात्मक अपील थी……………………..
अब यदि मैं खुलकर कहूँ तो भावनात्मक अपील के साथ-साथ कुछ स्वार्थ भी था. पिता जी बाबा जी के अकेले बेटे और एक बड़ी बेटी. एक बार बाबाजी और मैं खेत में कुछ काम कर रहे थे.एक परिचित व्यक्ति उनसे मिलने आये,तो कुछ ऐसी बात होने लगी ,बाबा जी उनसे बोले -पहले युवावस्था में हमारे ३ लड़के ४-५ वर्ष के होकर ख़त्म हो गए,तब बहुत दुःख होता था,लेकिन आज मुझे लगता ईश्वर जो करता अच्छा ही करता.एक था पढ़ -लिख कर आत्मनिर्भर बन गया.मैं भी निश्चिंत हूँ अब. नहीं तो अभी तक सबकी पढाई,शादी वगैरह में ही लगा रहता.
एक कहावत है -मूलधन से व्याज अधिक प्यारा होता है. मेरे जीवन वृक्ष पर बाबा-दादी का स्नेह मेघ अधिक बरसा. मैं भी उनसे अधिक करीब रहा.अपने स्मृति के पन्नों को थोड़ा ध्यान से पलटू ,तो मुझे याद आता है लगभग ४-५ वर्ष की उम्र से जब से मैंने होश सम्हाला,जीवन की प्रथम जिम्मेदारी के रूप में ,मैं एक १ लीटर के डिब्बे में बाबा जी को दिन में दो बार एक सुबह ९-१० बजे के करीब और दूसरा शाम को ४-५ बजे के करीब , खलिहान में पानी पिलाने जाया करता था. आज मुझे ऐसा लगता मैं पानी पिलाने नहीं,”ऑक्सफ़ोर्ड या हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ” विजिट के लिए जाता था, ब्लॉग पढ़ने बाले ऐसा सोच सकते हैं ,मैं ज्यादा ही आत्म कुल की प्रंसशा में रमा हुआ हूँ,परन्तु ऐसा सोचना शायद उचित नहीं होगा -क्योंकि मैं जैसे ही बाबा जी के पास पानी रखता उनके प्रश्नोत्तर प्रारम्भ हो जाते,जैसे की घर में क्या हो रहा है?, तुम्हारी महतारी ने आज क्या खाना बनाया ? आज तुमने क्या पढ़ा ? मिट्टी को अंग्रेजी में क्या कहते ? क्रॉप की स्पेलिंग क्या होती है ? आदि -आदि.ये क्रम उनका आज भी जारी है,मैं अवकाश लेकर घर जाऊँ तो प्रतिदिन २,४सवाल पूछते जैसे -गंगा के तट पर कौन -कौन से शहर हैं,तुम ड्यूटी कितने बजे जाते ,कब आते ,ड्यूटी प्लेस से कितनी दूर रहते इत्यादि . गॉव के कुछ लड़के तो उनके पास आने से डरते ,पता नहीं ये क्या पूछने लगेंगे…………………..( साथियों मैं ब्लॉग को ३००-४०० शब्दों तक ही सीमित रखना चाहता हूँ ,शेष अगले अंक में ).
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